'Tikli and Laxmi Bomb' : Film Review

    

Directed by Aditya Kriplani 

                        ये कहानी उन 'औरतों और लड़कियों' की है जिनको लेकर समाज के बहुत से लोग बहुत तरह के नजरिये रखते हैं। कुछ के लिये ये 'वैश्यायें' हैं, जिनको पैसे देकर खरीदा और बेचा जा सकता है, कुछ के लिये ये 'whore' हैं, जिनकी कोई इज्जत नहीं है तो कुछ के लिये ये prostitutes हैं, जिन्हें जोर-जबरदस्ती से इस पेशे में घसीटा गया है और इनको आजाद कराने की मुहीम में वो कुछ लोग शामिल हैं। पर इस आजादी के बाद की जिंदगी कैसे गुजरेगी, ये सवाल अभी भी अधूरा है?

              एक आम लड़की से Sex Worker बनने तक की जो भी मजबूरी या तंगी रही हो पर इस पेशे में आने के बाद ये महिलाएं अपने माहौल में छोटी-बड़ी खुशियां ढूंढ़ लेती हैं, नये रिश्ते बना लेती हैं, दर्द बांटना- हंसना सीख जाती हैं और उनकी जिंदगी का यही खूबसूरत हिस्सा फिल्म 'Tikli and Laxmi Bomb' में दिखाया गया है। इसके साथ ही इस कहानी का एक खास हिस्सा इन Sex Workers की 'क्रान्ति' का है, जो आजादी पाने का नहीं बल्कि उनकी जैसी भी जिंदगी है, उसी पेशे में रहते हुए आजादी से जीने का है, उस सुरक्षा को पाने का है जिसका अधिकार समाज की हर लड़की के पास है, चाहे वो इस पेशे में ही क्यों न हो। आज देश दुनिया में हर तरफ लोग बराबरी के लिए लड़ रहे हैं लेकिन जो समानता किताबों से निकलकर समाज के दिमाग में अभी तक अपनी जगह नहीं बना पायी है तो Prostitution के पेशे के साथ कितनी जुड़ी हो सकती है, शायद ख्यालों में भी नहीं।

         ये कहानी जरूर उन 'औरतों और लड़कियों' की है पर इनके पेशे में भी Patriarchy कितने भ्रष्ट तरीके से अपनी भूमिका निभा रही है, भ्रष्टाचार का ये सिरा भी यहाँ बखूबी दर्शाया गया है, जहाँ पुरुष ही इस व्यापार में खरीददार भी है और पुरुष ही इस पेशे को चलाये रखने का commission भी लेता है।

      फिल्म में बहुत तरह के सवाल दिखते हैं जो समाज की सोंच में अभी सिर्फ अपना अस्तित्व ढूंढ़ रहे हैं, फिल्म के एक हिस्से में कुछ पुलिस वाले एक रात जबरदस्ती पुतुल(sex worker) का Rape कर उसे घर भेज देते हैं और अगले दिन से सब इतना स्वाभाविक सा हो जाता है ऐसा लगता है मानो यहाँ कोई crime नहीं हुआ, और ये समाज का सबसे बड़ा पिछड़ापन कहलाना चाहिए जब प्रताड़ित व्यक्ति को ये महसूस भी न हो की वो किसी प्रताड़ना का शिकार हुआ है। ये साफ तौर पर दिखाता है कि समाज oppressed लोगों का चुनाव करने में अभी भी कितना biased है और अभी भी बहुत सी जगह खाली रह गयी हैं जिनपर उंगली उठाना बाकी है।

                              
- शुभम शुक्ला
  25/07/2020

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